Thursday, May 27, 2010

मुख़ातिब बस ग़मे-दिल हो तो ऐसा हो भी सकता है (ग़ज़ल)

मुख़ातिब बस ग़मे-दिल हो तो ऐसा हो भी सकता है
अकेला शख़्स महफ़िल हो तो ऐसा हो भी सकता है

कभी पानी से लगती आग देखी है सनम तुमने
तेरे आँसू मेरा दिल हो तो ऐसा हो भी सकता है

सफ़र तय हो नहीं सकता झपकते ही पलक लेकिन
अगर बेताब मंज़िल हो तो ऐसा हो भी सकता है

सफ़ीना डूब जाने में कब अपनी ख़ैरियत समझे
जहाँ ख़तरा ही साहिल हो तो ऐसा हो भी सकता है

करें सब क़त्ल मेरा ही मुझे मंज़ूर कब होगा
जो सब में तू भी शामिल हो तो ऐसा हो भी सकता है

चलें जन्नत में भी चर्चे ज़मीं की शादमानी के
जो दिल ही दिल का हासिल हो तो ऐसा हो भी सकता है

हसीं सपने सँजो कर आदमी पागल नहीं होता
हक़ीक़त से वो गाफ़िल हो तो ऐसा हो भी सकता है

ज़मीं पे बर्फ़ की चादर फ़लक़ का आईना टूटे
न महरम दिल का जब दिल हो तो ऐसा हो भी सकता है

इरादा जान देने का ‘मधुर’ का है नहीं लेकिन
बहुत दिलकश-सा क़ातिल हो तो ऐसा हो भी सकता है

Saturday, May 15, 2010

एक नया सवेरा

प्यारे पाठ्को

आज एक नया सवेरा है !

मैने एक नया ब्लाग बनाया ! आशा है आप का प्यार मिलेगा !



--मधुर (कांगड़ा)